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सेब में कैंकर रोग,कैसे करें रोकथाम। जाने डॉ राजेन्‍द्र कुकसाल से।

डा० राजेंद्र कुकसाल।

सेब के पौधों में लगने वाले रोगों में कैंकर एक मुख्य रोग है। योजनाओं में अन्य राज्यों से रोग से संक्रमित पौधों की आपूर्ति एवं सेब के लिए विपरीत भौगोलिक परिस्थितियों में पौधों के रोपण के कारण कैंकर रोग उत्तराखंड में तेजी से फैल रहा है।

यह रोग गर्म क्षेत्रों में अधिक देखने को मिलता है जहां सेब की Chilling Requirement पूरी नहीं होती । ऊंचाई वाले क्षेत्रों के दक्षिण ढलानों पर लगे बागों में भी यह रोग प्रायः देखने को मिलता है।

इस रोग में पौधे के तने शाखा या टहनी पर धंसी हुई छाल व अन्दर की लकड़ी के विक्षत हुए भाग दिखाई देते हैं जिसे कैंकर कहते हैं। कैंकर के संक्रमण से टहनियां सिरे से शुरू हो कर नीचे तक सूख जाती हैं जिससे पौधों में पानी व खनिज पदार्थों का प्रवाह रुक जाता है। रोग ग्रस्त पौधों की प्रभावित छाल कागजनुमा हो जाती है। तथा कैंकर वाले भाग सूखने लगते हैं। इस रोग के लक्षण मुख्यतः तने तथा शाखाओं पर देखे जाते हैं ।

रोग फैलने के कारण –

1. योजनाओं में अन्य राज्यों से विना कोरेन्टाइन के आपूर्ति किए गए रोगग्रस्त पौधों का रोपण।

2.उन बागीचों में जो समुद्र तल से 5000 फुट की ऊंचाई से नीचे हैं जहां कम से कम 3 माह की शीत पूरी नहीं होती ।

3.जो बगीचे दक्षिण की ओर अभिमुख होते हैं जहां सूर्य की किरणें सीधी तथा अधिक समय तक पौधों पर पड़ती है जिससे पौधे कमजोर हो जाते हैं ।

4.तेज धूप और वातावरण में कम नमी होने के कारण यह रोग अधिक फैलता है।

5.सेब के पौधों की ठीक तरह से कटाई व सिंधाई का न होना। जिससे सूर्य की रोशनी टहनियों तथा तनें के ऊपर सीधी पड़ती हैं तथा वो भाग कमजोर हो जाते हैं । इन जगहों पर कैंकर रोग के कीटाणु आसानी से आक्रमण करते हैं ।

6.जहां मोटी टहनियों की सिंधाई इस प्रकार से की गई हो कि तने तथा टहनियों के बीच 70-80 का कोण बन जाता है। इस स्थान पर वर्षा का पानी जमा होता रहता है जो कैंकर रोग के कीटाणुओं को पनपने में सहायता करता है ।

7.जिन बागीचों में नत्रजन उर्वरक अधिक मात्रा में प्रयोग की जाती है वहां पौधों की छाल फट जाती है जो कि कैंकर रोग के कीटाणु अन्दर जाने के लिए पर्याप्त होते हैं ।

8.जहां पौधे की काट-छांट के बाद कटे हुए भाग खुले छोड़ दिये जाते हैं । फल तुड़ाई या अन्य कारणों से टहनियों का टूट जाना तथा उन भागों को खुला छोड़ देना भी कीटाणुओं को अन्दर जाने का मार्ग बनाता है ।

9. कीड़ों-मकौड़ो द्वारा भी कभी-कभी कुछ जख्म बन जाते हैं जिनके द्वारा कैंकर रोग का फफूंद अन्दर चला जाता है जिससे यह रोग फैलता है।

सेब में कैंकर रोग कई प्रकार के होते हैं जो विभिन्न प्रकार की फफूंदों द्वारा होते है। तीन प्रकार के कैंकर अधिक नुक्सान करते हैं ।

1. स्मोकी ब्लाइट।
2 पिंक या गुलाबी रोग ।
3.भूरा तना या पेपरी बार्क।

रोकथाम के उपाय :

1.पौधों की सिंधाई तथा काट-छांट इस तरह से करें ताकि सूर्य की रोशनी सीधी शाखाओं और तने के ऊपर न पड़े।

2.जहां तक हो सके मोटी टहनियों को 45 -60 के कोण पर ही रखें।

3. काट-छांट करने के बाद कटे हुए भागों पर बोर्डों पेन्ट या चौबटिया पेस्ट लगायें ।

4..उर्वरकों का प्रयोग संतुलित मात्रा में करें।

5.फल तुड़ाई के उपरांत टूटी टहनियों सडे गले व जमीन में गिरे फलों को एकत्रित कर नष्ट करें।

6..काट-छांट के बाद कापर आक्सीक्लोराइड (ब्लाईटोक्स) ,कैप्टान का 0.3 प्रतिशत एवं कार्बनडिजिम (बेवैस्टीन) 0.05 प्रतिशत का छिड़काव करें ।

7. रोग की रोकथाम हेतु पौधों की सुप्तावस्था में बोर्डों मिक्चर (नीला थोथा + चूना) का छिड़काव करें।

उपचार –
रोग से संक्रमित भाग को हटा कर बोर्डों पेन्ट या चौबटिया पेन्ट लगाने से इस रोग का उपचार किया जा सकता है।

पेन्ट बनाने की विधि –

बोर्डो पेन्ट-
एक कि.ग्रा. नीला थोथा तथा 2 किग्रा बुझा हुआ चूना लेकर उनको अच्छी तरह पीस कर मिला लें उसमें अनुमान से इतना अलसी का तेल डालें कि यह आसानी से ब्रश से लगाया जा सके।

चौबटिया पेन्ट-

800 ग्राम कॉपर कार्बोनेट और 800 ग्राम सिन्दूर को अच्छी तरह आपस में मिला ले उसके बाद इसमें अनुमान से अलसी का तेल डालें ताकि ब्रुश द्वारा लगाया जा सके ।

पेन्ट लगाने की विधि –

सर्दियों में कैंकर से संक्रमित पूरे भाग को स्वस्थ हिस्से तक तेज धार वाले चाकू से अच्छी तरह छील लें तथा खुर्ची हुई संक्रमित लकड़ी और छाल को कपड़े या कागज के टुकड़े पर इकट्ठा कर जला कर नष्ट करें ताकि रोग के बीजाणु नष्ट हो जाएं उसके बाद स्प्रिट या मिट्टी के तेल से इस भाग को धो लें। उसके पश्चात बोर्डों पेन्ट, चौबटिया पेन्ट की गाढ़ी तह बुश से लगायें। । यह प्रक्रिया सर्दियों में करें। कटे हुए भागों में भी पेन्ट लगायें जहां तक हो सके छोटे से छोटे घाव या कटे हुए भागों पर भी पेन्ट का लेप जरूर करें। एक साल के पश्चात दुबारा सर्दियों में इन घावों के अन्दर की ओर बढ़ी हुई छाल को बहुत बारीक छिलें तथा दुबारा से पेन्ट लगायें । इस प्रक्रिया को तब तक करें जब तक घाव पूरी तरह भर न जायें । आमतौर पर तीन साल में पूरा घाव भर जाता है तथा नई छाल आ जाती है ।

गाय के गोबर का पेन्ट करने पर भी इस रोग का उपचार हो जाता है-

एक भाग गाय का ताजा गोबर और एक भाग चिकनी मिट्टी में थोड़ा पानी डालकर अच्छी तरह मिला लें। जब ये पूरी तरह मिल जाए तो उसमें इतना अलसी का तेल डालें कि यह बुश से आसानी से कटे हुए भाग पर लग सके ।

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