देहरादून- राज्य के नीति-नियंताओं और कार्यदायी संस्थाओं की हकीकत। जंगलों को आग से बचाने हेतु पिरूल प्रबंधन आवश्यक है?
डा० राजेंद्र कुकसाल।
जंगलों को आग से बचाने हेतु पिरूल प्रबंधन आवश्यक है?
मई- जून माह में चीड़ के जंगलों में आग लगते ही नीति नियंताओं द्वारा सोशल मीडिया व समाचार-पत्रों के माध्यम से जंगलों को आग से बचाने हेतु पिरूल प्रबंधन आवश्यक है? पर चर्चायें शुरू हो जाती है जो बर्षात में आग बुझने तक जारी रहती है, इसी मुद्दे पर फिर आगामी बर्ष गर्मियों में फिर से चर्चा शुरू होगी ,विगत कई वर्षों से यही होता आ रहा है।
राज्य बनने के बाद पिरूल प्रबंधन पर कई स्वयंम सेवी संस्थाएं आगे आईं। किसी ने पिरूल से कोयला बनाने, किसी ने पिरूल से उर्जा , किसी ने क्राफ्ट के नाम पर फाइल कवर सीट, पिरूल से रोजगार , पिरूल से बनेगी जेविक खाद और मशरूम उत्पादन भी होगा,पिरूल लाओ ,पैसा पाओ,सोलर एनर्जी, आदि न जाने कितने प्रोजेक्ट्स चलाए गए जो कागजों में अधिक धरातल में कम ही दिखे। इस तरह के हजारों करोड़ों के प्रोजेक्ट्स सरकारों से स्वीकृत करवाये। इन सब प्रोजेक्ट्स में वेस लाइन सर्वे, प्रशिक्षण, भ्रमण, ज्ञान प्राप्त करने हेतु राजनेताओं व नौकरशाहों का विदेश भ्रमण, गोष्ठियां, प्रचार प्रसार साहित्य खूब छपा। मशीनें भी खरीदी गई जिनके अवशेष कहीं कहीं दिखाई भी देते हैं। अब तक अधिकतर प्रयोग लागत अधिक आने के कारण प्रासंगिक नहीं रहे ,जब-तक इन योजनाओं में सरकारी धन रहता है तभी तक ये प्रयोग चर्चा में रहते हैं।
पिरूल प्रबंधन की एक बानगी –
बर्ष 2003 में तत्कालीन प्रमुख सचिव, वन एवं पर्यावरण तथा ग्राम्य विकास आर एस तौलिया के निर्देश पर वनों के लीफलिटर विशेष रूप से पिरूल का उपयोग करते हुए पहाड़ों में जैविक खेती की संभावनाओं तलासी गई । उस समय राज्य में वनों का लीफलिटर प्रति बर्ष दस लाख मीट्रिक टन आंका गया था जिसमें चीड़ प्रमुख था।
प्रोजेक्ट का एक अंश “जैविक कृषि विकास की नजरों से अगर पहाड़ों की कृषि देखी जाए तो हम पाते हैं कि प्रदेश के वनों से लगभग 10 मिलियन मेट्रिक टन जैव-अवशेष विभिन्न जंगली पेड़ जैसे बांस, चीड, देवदार, साल इत्यादि से पाये जाते हैं। यह महत्वपूर्ण जैव-अवशेष पौराणिक काल से पारम्परिक खाद बना बनाने के प्रयोग में लाये जा रहे है। इस परम्परा को उन्नत एवं उपयुक्त तकनीक से बेहतर बनाने की बहुत अधिक संमवानाएं पायी गयी हैं। वर्ष 2001 से ग्राम्य विकास विभाग द्वारा चल रही टी०टी०डी०सी० (तकनीकी स्थानान्तरण व विकास केन्द्र) योजना में पाया गया है कि बेहतर तकनीकी से न केवल खाद की गुणवत्ता बढ़ती है, साथ ही जैव अवशेष के पूर्ण सहन से कीड़े व भूमि सम्बन्धी बीमारियों में भी कमी पायी जाती है। महिलाओं के लिए पारम्परिक खाद की तुलना उच्च गुणवत्ता के कम्पोस्ट खेतों तक पहुंचाने के समय में व दुलान में लगने वाली मेहनत में भी महत्वपूर्ण अन्तर पाया गया है”।
जैविक खेती हेतु एक हजार पांच सौ करोड़ रुपए की एक कार्य योजना बनाई गई जिसका मुख्य उद्देश्य स्थानीय युवाओं को इस योजना से जोड़ना पिरूल से जैविक खाद बनाना राजकीय उद्यानों व अन्य जगह इस खाद के प्रयोग के सुझाव दिए गये। यह कार्य न्यायपंचायत स्तर पर होना था जिसके लिए विकास खंड स्तर पर मास्टर ट्रेनर भी नियुक्त किए गये साथ ही जैविक खाद की दरें भी निर्धारित कर दी गई थी। शुरू के वर्षों में जैविक खेती योजना के तहत इस पर कार्य भी प्रारंभ हुआ।
राज्य में जैविक खेती हेतु भारत सरकार से एक हजार पांच सौ करोड़ की योजना 2017 में परंपरागत कृषि विकास योजना के नाम पर स्वीकृत हुई आज की तारीख में योजना पर पूरा धन खर्च हो चुका है ।
राज्य में शासनादेशों की भावना का अनुपालन नहीं होता बल्कि शासनादेशों के उन अंशों पर क्रियान्वयन होता है जहां आसानी से भ्रष्टाचार किया जा सके। जैविक खेती योजना में भी वही हुआ ।पूरे बजट को नीम खली नीम आयल जैविक दवाओं जैविक खाद के नाम पर अधिकतर कवाड ही खरीदा गया जो कुछ समय स्टोरों में तथा बाद में सड़कों के किनारे गाड़ गधेरो में पड़े पाये गये।
जैविक खेती योजना में न पिरूल से खाद बनी न हीं स्थानीय युवाओं इस योजना से लाभान्वित हुए।
कहने के अभिप्राय यह है कि जबतक नेतृत्व की समझ, नियत व दृढ इच्छा शक्ति नहीं होगी कुछ नहीं होने वाला कुछ दिन शोर-शराबा रहेगा अगले बर्ष इन्हीं दिनों फिर से चर्चा होगी। हां सरकारों के इर्द-गिर्द घूम रही कुछ स्वयं सेवी संस्थाओं को जरूर कुछ प्रोजेक्ट्स अवश्य स्वीकृत हो जायेंगे।