Food उत्तराखंड

माल्टा/ संतरे के पौधों का सूखना ,कारण एवं प्रबन्धन।

डा० राजेंद्र कुकसाल।

नीम्बूवर्गीय फल पौधौं का उम्र पूरी होने से पहले 10-15 बर्षों बाद ही कमजोर हो कर सूखने को सिट्रस डिक्लाइन (citrus decline) या डाइवैक (die back) कहते हैं। इस रोग में रोगी शाखायें शीर्ष से लेकर नीचे की ओर सूखने लगती है , पत्तियां समय से पहले पीली होकर गिरने लगती है,फूल अधिक आते हैं किन्तु फल कम लगते हैं,फलों का उत्पादन कम हो जाता है साथ ही फल छोटे व फलों की गुणवत्ता कम होने लगती है, फलों का छिलका मोटा हो जाता है,पौधों के तने व शाखाओं से गोंद आने लगता है तथा पौधे कमजोर हो कर सूखने लगते हैं।

इस रोग के कई कारण है जिनमें, गलत कांट छांट, वाटर स्प्राउट्स ,अम्लीय मृदा,पानी निकासी का उचित प्रबंध न होना, पोषण की कमी, कीट व्याधि का प्रकोप आदि प्रमुख हैं।

पौध रोपण व शुरू के बर्षों में ध्यान देने योग्य बातें –

काटछाँट (Pruning) – नर्सरी से पौध रोपड़ के दौरान कुछ वर्षों तक लगातार काट छांट की जाती है ।काट छाँट एक क्रम से करना चाहिए ताकि वृक्ष का निर्माण ठीक से हो।

पौधे का तना ज़मीन से 40-45 सेमी० की ऊंचाई तक शाखा रहित होना चाहिए, बाद में तीस सेन्टिमीटर की दूरी पर तीन या चार मुख्य शाखाएं निकलने दी जाती हैं, जिन्हें 40° के कोण से सभी दिशाओं में समान रूप से फैलने दिया जाता है। फिर मुख्य शाखाओं से दो या तीन शाखाएं निकलने दी जाती है जिससे विकसित पौधा एक अनुकूल आकार ले सके।

जल प्ररोह (Water Shoots) – अनियमित तथा दोषपूर्ण काट-छांट के कारण एकाएक पौधों में वाटर स्प्राउट्स निकल आते हैं। ये कोमल, हरे तथा अति शीघ्र बढ़ने वाले होते हैं इनमें पत्तियों बड़ी, खुरदरी, तना चपटा व कटीला होता है।

वाटर स्प्राउट्स डाइबैक का एक प्रमुख कारण –

वाटर स्प्राउट्स के रहने देने से पेड़ का आकार खराब हो जाता है और पेड़ के बाकी हिस्सों से पोषक तत्वों की व ऊर्जा की कमी हो जाती है, बीमारियों और कीटों के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं,
ऐसे प्ररोहों में फल फूल कम व छोटे आते हैं। पेड़ की नियमित रूप से जाँच करें और जैसे ही वाटर स्प्राउट्स की नई कोंपलें निकलें उन्हें शीघ्र हटालें। डाइवैक की शुरुआत इन्ही वाटर स्प्राउट्स से शुरू होती है।

फल उत्पन्न करने वाले प्ररोह (Fruiting Shoots)- ये प्ररोह दुबले पतले, वृद्धि बहुत धीमी तथा साधारणतः धरातल के समानान्तर या लटके हुये होते हैं इनकी पत्तियां मध्यम या छोटे आकार की होती है। इन प्ररोहों की कांट-छांट प्रत्येक वर्ष नहीं करना पड़ता जब इन प्ररोहों में फल उत्पन्न करने की क्षमता कम होने लगे तब इनका कृन्तन करके अन्य प्ररोहों को विकसित किया जाता है।

वाटर स्प्राउट्स।

रोग प्रबंधन –

दिसंबर माह से मार्च तक किये जाने वाले कार्य –

सूखी एवं रोग ग्रसित टहनियों ,वाटर स्प्राउट्स को काट कर हटा दें। पुराने विकसित वाटर स्पोर्ट्स को तने के पास से काट कर अलग कर देना चाहिए।

मुख्य तने पर लगे बोरर के छिद्रों को तार की सहायता से साफ़ कर उसमें किरोसिन तेल/पेट्रोल से भींगी रुई ठूंस कर मिट्टी से बंद करे दें।जालों तथा कैंकर से ग्रसित पत्तियों को साफ़ कर दें।

गोंद निकलने वाले भागों को कुरेद कर साफ करें। बोर्डो पेन्ट /चौबटिया पेस्ट लगायें, एक सप्ताह बाद दोबारा लगाएं।

काट-छांट के बाद कॉपर ऑक्सीक्लोराइड तीन ग्राम दवा प्रति लीटर पानी की दर से घोल बनाकर या बोर्डों मिक्चर का छिड़काव करें।

डालियों के कटे भागों पर चौबटिया पेस्ट या बोर्डों पेन्ट लगायें। पौधों के तनों पर जमीन से 60 से मी तक बोर्डों पेस्ट लगाएं।

रोगग्रसित पत्तियों, डालियों को इक्ट्ठा करके जला दें तथा बागीचे की जमीन की सफाई कर गुड़ाई करें।

तने से निकले वाटर स्प्राउट्स।

अप्रैल माह से जून जुलाई तक के कार्य-
रोगग्रसित पौधों में 40 किग्रा गोबर की खाद + 4.5 किलो नीम खली + 150 ग्रा. ट्राइकोडर्मा + 1 कि.ग्रा. यूरिया + 800 ग्रा. सि.सु.फा. + 500 ग्रा. म्यूरेट ऑफ़ पोटाश + 1 कि.ग्रा. चूना प्रति वृक्ष के हिसाब से दो भागों में बांटकर जून-जुलाई और अक्टूबर में दें। यह प्रक्रिया लगातार 2 वर्षो तक अवश्य करें।

जब पौधों पर पत्तियाँ आ जायं तब उन पर 100 ग्रा. यूरिया प्रति दस लीटर पानी में घोल बनाकर बीस दिनों के अन्तराल पर दो से तीन छिड़काव करें। इसी के साथ जिंक सल्फेट (2 ग्रा./ली.) तथा कैल्सियम क्लोराइड/कैल्सियम नाइट्रेट (5 ग्रा./ली.) का दो छिड़काव भी करें।

कीट नियंत्रण एवं वायरस फैलने से रोकने हेतु नये कल्ले निकलते समय एमिडाक्लोरप्रिड (1 मिली/ प्रति ली.) या क्वीनालफास या क्लोरोपाइरीफोस (2 मि.ली./प्रति ली.) का घोल बनाकर 15 दिनों के अन्तराल पर दो छिड़काव करें।

मृदाजनित एवं पत्तियों पर लगने वाले रोगों के नियंत्रण का प्रबंध करें। कार्बन्डाजिम एक ग्राम दवा प्रति पानी की दर से घोल बनाकर पौधों में छिड़काव करें।फाइटोफ्थोरा फफूंद के नियंत्रण के लिए 1 प्रतिशत बोडो मिक्चर में 0.5 प्रतिशत जिंक सल्फेट का घोल बनाकर वर्षा ऋतु में छिड़काव करें।

कैंकर के निदान हेतु स्ट्रेप्टोसाइक्लिन या पूसामाइसिन (500 पीपीएम) का 2-3 छिड़काव नये कल्ले आते समय करें।

सितंबर अक्टूबर माह में कॉपरऑक्सीक्लोराइ तीन ग्राम दवा प्रति लीटर पानी की दर से घोल बनाकर या बोर्डों मिक्चर का छिड़काव करें तथा तने पर जमीन से,60 से.मी. तक पुनः बोर्डों पेस्ट लगाएं।

बोर्डों मिक्चर बनाने की विधि –
80 ग्राम नीला थोथा (कापर सल्फेट) तथा 80 ग्राम अनबुझा चूना की निर्धारित मात्रा अलग-अलग 5 – 5 लीटर पानी में घोलें। इन दोनों घोलों को एक साथ उडेलते हुए तीसरे बर्तन में मिश्रित करें तथा लकड़ी की ठंडी से खूब घुमा लें। यही मिश्रण बोडों मिश्रण है।

बोर्डों पेस्ट -एक कीलो नीला थोथा तथा एक किलो बिना बुझा हुआ चूना का पांच पांच लीटर पानी में अलग-अलग घोल बनाकर फिर इन गोलों को मिला लें। बर्तन धातु के बने न हों।

इस प्रकार से यदि क्रमबद्ध तरीके से प्रयास किये जायं तो नींबूवर्गीय फलों मे सूखने की समस्या तथा कम पैदावार की समस्या को रोका जा सकता है।उद्यान विभाग द्वारा पुराने बागों के जीर्णोद्धार हेतु योजना है उसका भी बागवान लाभ ले सकते हैं।

कृषि उद्यान विशेषज्ञ।

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