उत्तराखंड

उत्तराखंड की गढ़वाली कुमाऊनी भाषाओं के नाम पर भ्रमित न करें -डॉ बिहारीलाल जलन्धरी

रिपोर्ट विनोद मनकोट

उत्तराखंड की गढ़वाली कुमाऊनी दोनों भाषाओं को संविधान में शामिल करने का कार्यक्रम चल रहा है। यह उचित है परंतु इसमें एक बहुत बड़े पेंच के संबंध में जानकारी दी जानी आवश्यक है। प्रचार प्रसार तो होना ही चाहिए और यह आवश्यक भी है। परंतु संविधान की प्रतीक्षा सूची में जहां गढ़वाली 12 वें स्थान पर है वहीं कुमाउनी 22 वें स्थान पर है। ऐसे में इन दोनों की मांग एक साथ करना उत्तराखंड की जनता को भ्रमित करने के समान है। क्यों कि संवैधानिक रूप से इन दोनों में 10 वर्षों का अंतर है। इन 10 वर्षों के अंतराल को संवैधानिक रूप से समझने की आवश्यकता है।
वर्तमान में गढ़वाली लगभग 53 प्रतिशत लोग बोलते हैं वहीं कुमाउनी को 30 प्रतिशत। यदि यह दोनों उत्तराखंड की भाषा उत्तराखंडी के नाम से एक स्थान पर आएंगी तो इन दोनों का प्रतिशत 83 हो जाता है। बाकी उत्तराखंड की 12 बोलियों के शब्द कहीं न कहीं गढ़वाली कुमाऊनी के शब्दों से मेल खाते हैं। वह भी अपनी बोली के साथ उत्तराखंडी भाषा को जनगणना के दसवें कालम में प्रविष्ट करेंगे तो यह प्रतिशत अधिक बढ़ सकता है।
ज्ञातव्य हो कि सरकार आंकड़ों को देखती है। हमारे पास जो भी आंकड़े हैं वह गढ़वाली कुमाऊनी के नाम पर बंटे हुए हैं इसलिए सरकार भी राज्य स्थापित होने के तेईस वर्षों तक भाषा के लिए कुछ नहीं कर पाई। इस तरह के कार्यक्रमों से हमारे लोगों के साथ सरकार भी भ्रमित है।


उत्तराखंडी भाषा प्रसार समिति और उत्तराखंडी भाषा न्यास उत्तराखंड की प्रतिनिधि भाषा उत्तराखंडी के लिए लगातार काम कर रहे हैं।
हमारी गढ़वाली कुमाऊनी शसक्त भाषाएं हैं जिनके बहुत शब्द एक जैसे हैं। इन दोनों के शब्दों का संग्रहण कर हमारी टीम ने चंडीगढ़ गढ़वाल सभा भवन में कई बार बैठकें कर इन दोनों भाषाओं के समान शब्दों आधरित उत्तराखंडी भाषा के नाम पर एक पाठ्यक्रम मौळ्यार नाम से तैयार कर पुस्तक प्रकाशित की। जिसे देश में उत्तराखंड समाज की लगभग 110 संस्थाओं को वितरित किया जा चुका है और बहुत सारी संस्थाएं इस पाठ्य पुस्तक के माध्यम से नौनिहालों को सिखा पढ़ा भी रही हैं।
हमारी समिति ने पहले कक्षा 1 से 10 वीं तक दो भागों में इस पाठ्य पुस्तक को चंडीगढ़ में प्रकाशित किया, जिसका दूसरा संस्करण कक्षा 1 से 5 तक एक पुस्तक और कक्षा 6 से 10वीं दूसरी पुस्तक तैयार की जा रही है। हमने सभी संगठनों से इन पाठ्यक्रमों को तैयार करने के लिए प्रस्ताव आमंत्रित किए हैं। संगठनों के प्रस्ताव मिलने के बाद ही इन दोनों पुस्तकों को फाइनल कर प्रकाशित किया जाएगा।
हमारा उद्देश्य है कि हम इन दोनों भाषाओं के समान शब्दों को साथ लेकर एक पाठ्य-पुस्तक तैयार कर समाज को बताएं कि हम उत्तराखंड के नाम पर एक हैं न गढ़वाली न कुमाऊनी।
भविष्य में यदि गढ़वाली कुमाऊनी में भाषाई रूप से एकता होगी तो इसका आंकड़ा 90 प्रतिशत तक हो सकता है इसके बाद हमारे उत्तराखंड की उत्तराखंडी भाषा को संविधान की अष्टम सूची में शामिल करने से कोई प्रशासनिक रुकावट नहीं होगी।
एक संभावना है कि इन दोनों भाषाओं की मांग को संविधान में शामिल करने में भविष्य में एक बहुत बड़ा पेंच आ सकता है। पहले तो यदि इन दोनों में से किसी एक को भी संविधान की अष्टम सूची में शामिल किया जाता है तो वह प्रशासनिक रूप से उत्तराखंड की प्रतिनिधि भाषा मानी जाएगी । इसपर शंका है कि क्या गढ़वाली को संविधान में शामिल करने पर कुमाऊं के लोग गढ़वाली को प्रतिनिधि भाषा के रूप में स्वीकार करेंगे। या फिर कुमाऊनी को गढ़वाली अपनी प्रतिनिधि भाषा स्वीकार करेंगे। उत्तराखंड की इन दोनों भाषाओं को संविधान में शामिल करने वाले लोगों से हम इस शंका का समाधान जानना चाहते हैं।
हम पूरे देश में उत्तराखंड समाज के संगठनों के माध्यम से उत्तराखंड की प्रतिनिधि भाषा उत्तराखंडी के लिए पाठ्यक्रम मौळ्यार के साथ संदेश देने में सफल रहे हैं।
इस क्रम में सबसे पहले चंडीगढ़ के उन तमाम साथियों का समिति के पदाधिकारी धन्यवाद और आभार प्रकट करते हैं।
पुनः उत्तराखंड एक उत्तराखंड की प्रतिनिधि भाषा उत्तराखंडी एक, का नारा उत्तराखंडी समाज को देने में लगातार सफलता मिलने पर सभी संगठनों और उनके पदाधिकारियों व सदस्यों को बहुत बहुत साधुवाद और आभार।

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