पहाड की संस्कृति और पहाड मे राखी का बदलता स्वरुप

पहाड देवताओ की भूमि रही है और यहां देवताओ का वास के साथ साथ कण कण मे देवताओ का वास है। पहाड की लगातार पहाड की संस्कृति बदलती जा रही है हम देवी देवताओ को मानने वाली संस्कृति को छोड कर दिखावे वाले त्यौहारो को या तराई या दुसरे राज्यों के त्यौहारो को काफी तवजो दे रहे है। आप देख रहे है की अब पहाड मे बाहर की संस्कृति काफी तेजी से अपने रुम मे है और उसे मान भी रहे है।
दुसरे त्यौहारो और रीति रिवाजो को मानने मे कोई बुराई नही है पर अपने रीति रिवाजो को जो देवताओ के समय या उसके बाद हमारे पुर्वजो ने बनाऐ वह हम केवल नाम मात्र या जब गले गले आ रही तो ही मना रहे है। आज पहाड मे जिस तरह से देवी देवताओ को अपने कला संस्कृति को नजरअंदाज कर रहे है । क्या देवीय आपदाऐ इसका कारण नही हो सकती। विकास के नाम पर या सुविधाओ के नाम पर हम बिना पैमाने के काम करवा रहे कर रहे । क्या वह भी इसका कारण नही हो सकते।
आज बात राखी की है। राखी का त्यौहार हमारे भारत मे तराई क्षेत्रो मे शुरु से मनाया जाता रहा है। पर हम जब अपनी संस्कृति मे थे तब भाई बहिन का त्यौहार नही होता था । तराई क्षेत्रो मे सिकंदर पौरस या हुमाउं रानी कर्णवती के समय रहा हो। पर हमारे पहाड मे देवी देवताओ के समय हुआ रक्षा सुत्र बाद मे ब्राह्मण जजमान को रक्षा सुत्र बांध कर करते आए है । हम छोटे थे तब पुरोहित गांव गांव आते थे और काला धागा उनको दे जाते थे जो जजमान दुर रहते थे। गांव मे वह धागा अपने जजमानो को बांधा करते थे। हमे याद है की 1990 के बाद पहली बार दिल्ली मेरी बहिन ने राखी भेजी तब यह शुरुआत थे पहाड मे भाई और बहिन के त्यौहार की पर तब केवल यह राखी वही मिलनी शुरु हुई जहां बडी मार्किट थी। धीरे धीरे यह त्यौहार भाई बहिन का बन कर रहे गया। आज न पुरोहित जजमान के पास जा रहा न ही जजमान को पुरोहित से कोई इस तरह की उम्मीद है क्यों पुराहित जजमान के बंधन को हम सब ने भाई बहिन के प्यार तक सिमित कर दिया है।
। बदलाव समय के साथ साथ जरुरी हो सकता है पर क्या संस्कार समय के साथ साथ जरुरी है या पहाड की कला संस्कृति अब केवल मंचो पर ही रह जाऐगी। अब जो जागर भी कार्यक्रमो तक ही समित रह गए है। एक समय था हर साल खुशी मे देवताओ के नाम पर एक रात अवश्य दी जाती थी और उनको आशीवार्द लिया जाता था पर आज केवल तब देवताओ को याद करते है जब गले गले आ जाती है । समरण रहे की पहले साल साल देवताओ पित्रो के को समरण करना और आज जब गले गले आ जाए तब यह कहना हम सब कार्य कर रहे है पर यह क्यो निकल रहे है। जिन देवी देवताओ की वजह से हम आज दुनिया मे है खा पी रहे मकान व्यवसाय कर रहे उनके नाम पर कभी कभी करना पडे तो हम कहते है क्या है बार बार देखो जागर हरिद्वार।
सोचे मनन करे कला संस्कृति को केवल मंचो पर करने वाले इसे अपने जीवन मे धरातल पर भी अमल करे।
आज राखी का त्यौहार है हार्दिक बधाई। सबको अपनी कला संस्कृति रीति रिवाजो को सोशल मिडिया या मंचो तक केवल जानकारी समझे पर करना तो धरातल पर ही है वर्ना देवताओ का प्रकोप आज देवी आपदाओ को देख ही रहे है । विकास और सुविधाओ के नाम पर बिना मानको के काम आज उसी का नतीजा है।