प्रकृति संरक्षण का लोकपर्व-हरेला।
प्रकृति संरक्षण का लोकपर्व-हरेला।
डा० राजेन्द्र कुकसाल।
सुख – समृद्धि व हरियाली का पर्व हरेला हर बर्ष 16 जुलाई को पूरे उत्तराखंड में मनाया जाता है। हरेला से दस दिन पहले पांच-सात अनाज के बीजों को एक टोकरी में साफ मिट्टी भर कर बुवाई करते हैं। इस टोकरी को घर के मन्दिर के पास रखा जाता है। इस पर नियमित सुबह-शाम हल्का पानी डालते रहते हैं। दस दिनों तक देख रेख के बाद हरेला तैयार हो जाता है। दसवें दिन इसे काटकर देवी-देवताओं की पूजा की जाती है व घर में पकवान बनाए जाते हैं तथा घर-परिवार में सुख-समृद्धि एवं शांति व अच्छी फसल की कामना की जाती है। यह लोकपर्व पर्यावरण संरक्षण एवं प्रकृति को संजोकर रखने का संदेश देता है।
प्रकृति –
प्रकृति याने पृथ्वी, वायु मंडल,जल और सूर्य। प्रकृति ने जीव जन्तु पेड़ पौधे सभी के जीवन यापन की सुदृढ़ व्यवस्था की है।
भारतीय दर्शन के अनुसार प्रत्येक जीव का शरीर पंच भूत या पांच तत्वौ से बना है पृथ्वी, आकाश,जल, वायु और अग्नि (सूर्य)।आयु पूर्ण करने पर या नष्ट होने पर फिर इन्हीं पांच तत्वौ में विलीन हो जाते हैं।
100 किलो ग्राम हरी फसल को यदि पूरी तरह सुखाते हैं तो 22 किलो ग्राम सूखी घास प्राप्त होती है याने 78 % पानी निकल गया यदि इस 22 किलो ग्राम सूखी घास को जलाते हैं तो 1.5 किलो ग्राम राख प्राप्त होती है याने 20.5% अग्नी व वायु के रूप में वायु मंडल में समा गयी मात्र 1.5 % भूमि में मिला।
पेड़ पौधे की हरी पत्तियां सूर्य के प्रकाश में वायु मंडल की कार्वन डायऔक्साइड व पानी के सहयोग से प्रकाश संश्लेषण क्रिया द्वारा अपना भोजन स्वयं बनाते हैं तथा पोषक तत्व भूमि से लेते हैं।भूमि में सभी आवश्यक पोषक तत्वों का भंडार उपलब्ध है जड़ों द्वारा इन पोषक तत्वों को अवशोषित कर पत्तियों तक पहुंचता है।
शाकाहारी जीव जंतु वनस्पति पर निर्भर रहती है तथा मांसाहारी जीव जंतु शाकाहारी जीव जंतुओं पर इस प्रकार प्रकृति ने सभी जीवों के भरण पोषण हेतु एक सुदृढ़ खाद्य चक्र की व्यवस्था की हुई है।
इस दुनिया में जीने के लिए जो कुछ भी हमें चाहिए वह सब प्रकृति देती है हवा पानी भोजन व आश्रय अर्थात रोटी कपड़ा व मकान सबकुछ।
जलवायु परिवर्तन एवं ग्लोबल वार्मिंग –
अपने भौतिक सुखों के लिए मानव द्वारा प्रकृति का दोहन करने से पर्यावरण में असंतुलन आया है जिस कारण जलवायु परिवर्तन एवं ग्लोवल वार्मिंग हुई है।जलवायु में दशकों, सदियों या उससे अधिक समय में होने वाले दीर्घकालिक परिवर्तनों को जलवायु परिवर्तन कहते हैं। जलवायु परिवर्तन का मुख्य कारण ग्लोबल वार्मिंग है एवं ग्लोबल वार्मिंग का मुख्य कारण पर्यावरण में ग्रीन हाउस गैसों जैसे कार्बन डाइ ऑक्साइड , मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड आदि की मात्रा में वृद्धि है। बढ़ते औद्योगिकरण , शहरीकरण,वाहनों की संख्या में वृद्धि, पैट्रोलियम ईंधन एवं ऊर्जा की बढ़ती खपत, जंगलों में आग, जंगलों का दोहन, बढ़ती आवादी, खेती में अधिक रासायनिक, कीट व्याधिनाशक दवाइयों का प्रयोग व अन्य कारणों से ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में बढ़ोतरी हुई है।
तापमान वृद्धि के साथ ही वातावरण में विषैली गैसों के कारण पौल्यूसन बढ़ा है कई शहरों का (AQI )Air Quality Index बढ़ा है। जस कारण मनुष्य के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ा तथा कई गम्भीर रोग जैसे कैन्सर डाइबिटीज हार्टअटैक आदि में वृद्धि हुई है।
धरती में वातावरण के तापमान में लगातार हो रही विश्वव्यापी बढ़ोतरी को ‘भूमण्डलीय ऊष्मीकरण’ कहा जा रहा है। हमारी धरती सूर्य की किरणों से उष्मा प्राप्त करती है। ये किरणें वायुमण्डल से गुजरती हुईं धरती की सतह से टकराती हैं और फिर वहीं से परावर्तित होकर पुन: लौट जाती हैं। धरती का वायुमण्डल कई गैसों से मिलकर बना है जिनमें कुछ ग्रीनहाउस गैसें भी शामिल हैं। इनमें से अधिकांश धरती के ऊपर एक प्रकार से एक प्राकृतिक आवरण बना लेती हैं जो लौटती किरणों के एक हिस्से को रोक लेता है और इस प्रकार धरती के वातावरण को गर्म बनाए रखता है। वैज्ञानिकों का मानना है कि ग्रीनहाउस गैसों में बढ़ोतरी होने पर यह आवरण और भी सघन या मोटा होता जाता है। ऐसे में यह आवरण सूर्य की अधिक किरणों को रोकने लगता है और फिर यहीं से शुरू हो जाते हैं ग्लोबल वार्मिंग के दुष्प्रभाव।
जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल, संयुक्त राष्ट्र संघ का अधिकारिक पैनल है जो वैज्ञानिक आधार पर जलवायु में बदलाव के प्रभावों और भविष्य के जोखिमों का नियमित मूल्यांकन करता है।
ग्लोबल वार्मिंग के कारण मौसम में बदलाव आया है।
बारिश के समय में अन्तर हुआ है, पहले बर्ष में,जुलाई अगस्त और दिसंबर जनवरी में अधिक बर्षा होती थी लेकिन अब अगस्त सितम्बर और जनवरी फरवरी में अधिक बरिश हो रही है।
पहले 7-8 दिनों तक लगातार बारिश होती थी अब एक से दो दिन तक ही लगातार बारिश होती है। पहले पूरे क्षेत्र में बर्षात होती थी अब छिटपुट होती है।
बारिश का स्वरूप पहले से बदला है, वर्तमान में 2-3 घंटों में जितनी बारिश हो रही है पहले 2 दिनों के अन्दर होती थी, बारिश बहुत तेज व मोटी बूंदों वाली हो रही है, बर्ष भर की औसत बारिश में कमी हुई है।
पहले बादल फटने व अतिवृष्टि की घटनाएं कम होती थी, अब बादल अधिक फट रहे हैं । पहले की अपेक्षा ओलावृष्टि फसलों को अधिक नुक्सान पहुंचा रहा है।
पहले घाटी वाले स्थानों में भी 1 फीट तथा ऊंचाई वाले क्षेत्रों में 3-4 तक बर्फ पड़ जाती थी लेकिन अब घाटी वाले स्थानों पर बर्फ़ नहीं पडती है साथ ही ऊंचाई वाले स्थानों में भी कम ही बर्फवारी देखने को मिलती हैं।
बर्षा कम होने से 50% जल स्रोत सूख गए है, बचे स्रोतों में पानी काफी कम हुआ है जो स्रोत पहले 20 लिटर पानी प्रति मिनट देते थे वे स्रोत आज 1 लिटर प्रति मिनट से भी कम औसत पानी दे रहे है।
हिमालय जो पहले बर्ष भर बर्फ से ढके रहते थे अब उनपर कम बर्फ देखने को मिलती हैं ग्लेसियर पीछे चले गए हैं।
पाला अधिक गिरने लगा है रात का तापमान पहले से अधिक कम होने से रात अधिक ठंडी एवं दिन अधिक गर्म होने लगे हैं। कोहरा अधिक घना व लम्बे समय तक लगने लगा है।
भारत में कृषि मानसून की बर्षा पर आधारित है ,मौसम परिवर्तन का कृषि पर सीधा प्रभाव पड़ा है। वे मौसम बर्षा के कारण किसानों को अपना फसल चक्र बनाये रखना कठिन हो रहा है।
बागवानी फसलें अन्य फसलों की अपेक्षा जलवायु परिवर्तन के प्रति अधिक संवेदनशील होती हैं। उच्च तापमान सब्जियों की पैदावार को भी प्रभावित करता है।
गेहूं के लिए बीज जमाव से लेकर वानस्पतिक वृद्धि तक 12-25°C अनुकूल तापमान माना जाता है माह मार्च अप्रैल में ताप मान में अचानक वृद्धि होने से गेहूं की फसल समय से पहले तैयार हो जाती है जिससे उपज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
भूमि जल स्तर कम होने से धान की फसल कम लगाने की सरकार सलाह देती है।
पहाड़ी क्षेत्रों में दिसम्बर जनवरी माह में बोये गये आलू में माह मार्च अप्रैल में आलू के दाने पढ़ते हैं ,यदि इस समय तापमान 21 डिग्री सेल्सियस से ऊपर चला जाय तो आलू में केवल वानस्पतिक वृद्धि होती है आलू के दाने नहीं पढ़ते कई आलू उत्पादक इस प्रकार की समस्यायों से जूझ रहे है।
शीतलहर एवं पाला, तिलहनों तथा सब्जियों के उत्पादन में कमी लाता है,वर्ष 2003 में जनवरी माह में शीत लहर के परिणामस्वरूप विभिन्न खाद्य पदार्थों जैसे आम, पपीता, केला, बैंगन, टमाटर, आलू, मक्का, चावल आदि की उपज पर अत्यधिक प्रभाव पड़ा था।
जलवायु परिवर्तन अप्रत्यक्ष रूप से भी कृषि को प्रभावित करता है जैसे खर-पतवार को बढ़ाकर, फसलों और खर-पतवार के बीच स्पर्द्धा को तीव्र करना, कीट-पतंगों तथा रोग-जनकों की श्रेणी का विस्तार करना इत्यादि।
जलवायु परिवर्तन एवं ग्लोबल वार्मिंग के चलते पर्यावरण संरक्षण एवं प्रकृति की हरियाली संजोए रखने हेतु उत्तराखंड का लोक पर्व हरेला और भी प्रासंगिक हो गया है।